Saturday, July 25, 2009

मन

आदमी की शक्सियत से है, ये बंदगी,
सादे लिबास में बस लिपटी, ये ज़िन्दगी,
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....

रहे गुजर ज़िन्दगी की होती है, इक सच्चाई,
रह जाती आदर्शों की बस इसमें, इक परछाई.
टूटते है सारे वादें सच्चाई वाला प्रण.
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....

हरेक जुर्मवार की अपनी है, इक रवानी,
सभी कुकृत्यों में छिपी उनकी, इक कहानी.
समझा लेते है "मैं" को समझ के इक बुरा स्वप्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....

सोचता हूँ आदर्शो का कल होगा नया, इक सवेरा,
वादों, नियमो, सच्चाई का बस, होगा इक बसेरा.
"कल" का "कल" न होने से हो जाता हूँ खिन्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....

------- "नीरज भैया" की आज्ञानुसार इक कोशिश

Thursday, July 16, 2009

आपकी सोच और आपकी ख़ुशी

मेरा मानना है, किसी भी व्यक्ति को खुश रहने के लिए किसी कारण या किसी वजह का होना जरूरी नहीं हैं. यह व्यक्ति बिशेष की अपनी मानसिक सोच पर निर्भर करता है. किसी भी कारण या बात को वह किस अंदाज में लेता है? उसकी सोच को दूरी क्या है? उस बात का कितना जल्द और कैसा प्रभाव उस पर होने वाला है ? .......? ......?. आदि...आदि.....

चलिए मैं कुछ आँखों देखा प्रसंग जिसका अनुभव मैंने मेरे बड़े भईया और मित्र के साथ सन-सेट पॉइंट, मुंबई में किया था और आज उसी दृश्य को आप सभी के साथ शेयर करता हूँ, और उससे जुड़े कुछ किन्तु और परन्तु भी शेयर करता हूँ...... और यह बताना चाहता हूँ, की जब आप आनंद से किसी चीज का अवलोकन कर रहे होते है तो उसका क्या निष्कर्ष होता है और जब आप उसी चीज का अवलोकन किन्तु-परन्तु से करते हैं तो उसका निष्कर्ष क्या हो सकता है?

पहला दृश्य : एक करीब ५० वर्षीय खाते पीते घर का व्यक्ति सूर्य से विमुख होकर कुर्सियों के सहारे , आधे लेटने की स्थिति में बैठा हुआ है और साथ ही साथ बिना रुके लगातार मकई के पकोडो और वहाँ पर बिक्री होने वाले व्यंजनों का अपने प्रियजनों के साथ स्वादन कर रहा है. उसे सूर्य की स्थिति से कोई लेना देना नहीं है. सूर्य आये या जाए उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. उसे तो केवल इस बात का ध्यान है कि उसके पकोडे आने में तो कोई विलंब तो नही हो रहा है या फिर समझ लीजिये कि पूर्ण मौज की स्थिति में है.

साधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : यह तो बड़ी ही हास्यपद स्थिति है भाई.... जब आप सन सेट पॉइंट पर आये हो तो, सूर्य को देखो, उससे प्राकृतिक सुन्दरता का आनंद लो, सूर्य द्वारा आच्छादित किरणों को तालाबो, पेडो और पहाडो पर देखो तब आपका सन सेट पॉइंट जाना सार्थक है, नहीं तो आप पकोडे तो घर पे ही खा सकते हो यहाँ आने का कष्ट करने की क्या आवश्यकता है?

असाधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : भाई, यह तो धर्म और मान्यताओं का अपमान है, और ये कृत्य पूर्ण रूप से दंडनीय है. आप में सूर्य देव के लिए श्रध्दा होनी चाहिए, चाहे आप किसी भी धर्म वाले क्यों न हो? आपके अन्दर धर्म की भावना होनी चाहिए.,एक तो आप सूर्य देव से विमुख हो , दुसरे जुठे मुँह लेकर आप सूर्य देव की अवहेलना कर रहे हो. यह पूर्ण रूप से दण्डनीय है और ऐसे व्यक्तियों के इन स्थलों पे आने पर रोक लगा देनी चाहिए आदि आदि ... ...

हम तीन मित्रो का नजरिया : भाई...! सब मौज है और जब आप खुश और टेंशन मुक्त है तो हम भी है.......

दूसरा दृश्य : एक धार्मिक गुरु जैसा व्यक्ति, माथे पर चन्दन , पैरो में मोजे और चप्पल एवं शाहरुख़ खान वाली चोटी के सहारे अपने व्यक्तित्व को अलग ढंग से हे आकर्षित करते हुए किसी परिवार के चार पांच सदस्यों को लगातार प्रवचन दे रहे थे. परिवार के सभी सदस्य बड़ी हे श्रद्धा के साथ उनका प्रवचन सुन रहे थे. ऐसा नहीं था के यहाँ पकोड़े नहीं आ रहे थे , परन्तु उनका सेवन बहुत ही सादगी पूर्ण रूप से हो रहा था.

साधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : भाई प्रवचन देने का यह उपयुक्त स्थल नहीं है, यदि आपको प्रवचन देना है तो मंदिर या मठो में जाकर दीजिये, यहाँ आने कि क्या ज़रुरत है? और इस वेश भूषा में तो ये मुझे पूर्ण रूप से ढोंगी लगता है और ये दृश्य पूर्ण रूप से एक ढोंगी का मायाजाल है एवं यहाँ सावधानी के आवश्यकता है.

असाधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : भाई आज ढोंग अपने चरमोत्कर्ष पर है, लोग - बाग़ अलग अलग वेशभूषा के सहारे लोगो को लूटते है. दर्शनीय स्थल पर इस ढंग का आचरण पूर्ण रूप से वर्जित कर देना चाहिए और समाज को भी इस तरह के ढोंग से आगाह करने की पूर्ण व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए, और रही बात धर्म के अपमान की, तो वह तो हो ही रहा है. क्या करे.....? अपना धार्मिक और सामाजिक संतुलन ही इस ढंग का है......

हम तीन मित्रो का नजरिया : भाई...! सब मौज है और जब आप खुश और टेंशन मुक्त है तो हम भी है.......

तीसरा दृश्य: कुछ कॉलेज गामी छात्र एवं छात्राएं पुरे मौज कि स्थिति में हैं और हँसी मजाक करते हुए सूर्य के सामने अलग अलग मुद्राओं में फोटो खींच और खिंचवा रहे है. वे कभी डूबते हुए सूर्य को हथेली पर, कभी सर के ऊपर और कभी न भूलने वाले अंदाज़ में कैद कर लेना चाह रहे है. मौज मस्ती का पूरा आलम है, पकोडे, चाट, डाब आदि का लगातार सेवन चल रहा है.-- कम शब्दों में कहिये तो पूर्ण मौज के स्थिति है.

साधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : भाई, ये उम्र ही ऐसी है और इस ढंग की बात के होने में कोई अचरज नहीं है. हमने भी हमारे समय में कुछ ऐसा ही किया है.

असाधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण : भाई इनके लालन पालन में सबसे बड़ा दोष इनके माता पिता का है, बस पैसे दे देते है और चाहे बच्चे कुछ भी क्यों न करे..? इनसे उनका कोई लेना देना नहीं है. वे तो बस अपनी पार्टियों में मशगूल रहते हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा में इनका होना भी जरूरी समझते है. जब कोई बात या अनहोनी हो जाय तो व्यवस्था को दोष देते है. ऐसा नहीं है कि इसमें सामाजिक व्यवस्था का दोष नहीं है, वह भी बिगड़ चुकी है. हमारे समय में ऐसा नहीं था......आदि आदि. पुलिस और व्यवस्थापक भी इस बात के लिए दोषी है, सरकार को भी ठोस कदम उठाना चाहिए. भाई दर्शनीय स्थल पर ओछापन का होने का क्या औचित्य है .......आदि आदि.

हम तीन मित्रो का नजरिया : भाई...! सब मौज और आनंद है और जब आप खुश और टेंशन मुक्त है तो हम भी है....... बहुते खुश है...........

Saturday, June 6, 2009

मेरे बच्चे मुझे बुड्ढा होने नहीं देते

मैं हमेशा टीवी मैक्स- न्यू-लाइफ-इंश्योरेंस के उस विज्ञापन को देखकर खुश हो जाता हूँ, जहाँ पर एक व्यक्ति अपनी जिम्मेवारिओं को पूरा कर स्वछंद जीवन यापन कर रहा होता है, और उसे अब किसी भी प्रकार की कोई दुश्चिंता नहीं है, वह अपना कर्म-योगी जीवन पूरी ईमानदारी से निभा कर अब कुछ भी करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है .........

ठीक इसके विपरीत मैं अपने घोषाल साहब को देखता हूँ वह भी करीब प्रचार वाले व्यक्ति के हमउम्र ही होंगे या फिर उनकी उम्र उससे कुछ ज्यादा ही होंगी.....

चलिए पहले मैं अपने घोषाल साहब के वारे में आपको बता दूं. घोषाल साहब से मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं हैं, वह मुझे अक्सर आफिस आते वक्त रस्ते में मिल जाते हैं, पेशे से वह वकील हैं, उनकी उम्र ७०-७५ के आस-पास होगी, आँखों में भारी पाबर का चस्मा हैं, चलते वक्त पैरो के कम्पन को आप दूर से देख कर अनुभव कर सकते हैं. एक फटी हुई फाइल को लेकर हमेशा सुबह के १०.४५ के आस-पास कोर्ट के तरफ जाते हुएं आप भी देख सकते हैं.

उनकी काली पोशाक जो अब जर-जर हो गयी है, इस बात को शंकेत करता हैं की उनके पास अब दूसरी कोई काली पोशाक नहीं हैं. मैं उनको अक्सर बस सहानुभूति वाले नजर से देखकर आगे चला जाता था, कभी परिचय न होने के कारण उनसे बात नहीं कर सका. किन्तु उनका बेवश उम्रदराज चेहरा मुझे हमेसा कचोटता था. सौभाग्यबस एक दिन मुझे कोर्ट में जाना था, मैंने देखा हमारे घोषाल साहब अलग- थलग से एक बेंच पर बैठे हुएं है, सो मैं उनके पास जाकर बैठ गया, और अपना आरंभिक परिचय देने के बाद, उनसे उनके बारे में पूछा.. ...

उनके अनुसार उनके ३ लड़के और २ लड़कियां हैं, पत्नी का निधन दो साल पहले हुआ है. एक लड़की की शादी हो चुकी हैं और एक घर पर है, दोनों लड़को का अपना संसार है और वेल सेटेल है, दोनों लड़को के दो-दो बच्चे हैं. भरा- पूरा खुशहाल परिवार है. मेरी जिज्ञासा बढती गयी, और मैंने पूछ लिया - सर, जब सब सेटल हैं तो आप इतना कष्ट क्यों उठा रहे हो?

और मुझे जितना कुछ उनके वारे में दिखता था सब् वक दिया. एकवारगी तो मेरे इस सवाल से वो सकपका से गए- परुन्तु दुसरे ही पल उनकी आँखे छलछला गयी - और उन्होंने मुझे बताया- मेरे दोनों लड़के केवल अपने संसार को लेकर व्यस्त हैं और घर की कोई भी जिम्मेवारी से उनका कोई नाता नहीं नहीं है, यहाँ तक की घर के रासन- पानी में भी एक फिक्सड रुपे दे देते हैं, वाकी सब उनको ही देखना पड़ता है. लड़की की शादी करनी हैं उसके लिए भी पैसे चाहिए. एक लड़के की नौकरी के लिए भी उन्होंने उधार लिया हैं उसे चुकाना है. मेरी मजबूरी है, क्या करुँ छोड़ भी तो नहीं सकता, बस अब तो केवल ठाकुर ऊपर बुलाये तब ही शांति होगा .........आदि आदि......

उनकी यह सब बातें सुनकर मानो मेरे पैर के निचे से धरती सरक सी गयी थी. और मैं किसी भी प्रकार से अब कुछ पूछने की स्थिती में नहीं था. मेरे समझ में यह नहीं आ रहा था की उन्हें मैं कर्मठ, कर्मयोगी कहूं या फिर लाचार, आभागा, अपने बच्चों द्वारों सताया हुआ एक बाप.

Monday, June 1, 2009

इस तरह मैं समझदार होते - होते रह गया

इस पोस्ट को लिखकर कोशिश की है समझदार, कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदार लोगों को अपने कार्यकाल की उस सच्चाई से रु-ब-रु कराने की, जिसे हर कोई झेलता हैं. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष.................

यह मेरा अपना अनुभव हैं. किसी शिकायत या रोष हेतु नहीं लिखा है मैंने. कहना केवल यही है कि कैसे अपनी धारणा लेकर चलनेवाला समय-समय पर उसे पिटते हुए देखता है.

बात उन दिनों की हैं, जब मैं एक लिमिटेड कंपनी में एकाउंटेंट की हैसियत से कार्यरत था. जैसा कि सब समझते हैं, मैं भी अपने आपको किसी से कम बड़ा और समझदार नहीं समझता था. हमारी कंपनी के तत्कालीन मालिक जो कंपनी के डायरेक्टर भी थे, मुझे हर छोटी- बड़ी जिम्मेदारी को बड़े सहज और प्यारे शब्दों में दे दिया करते थे. मैं भी दी गयी जिम्मेदारी को पूरा करने हेतु जुट जाता.

वैसे भी, करता भी कैसे नहीं? बात जिम्मेदारी और समझदारी की होती थी और मैं खुद को जिम्मेदार और समझदार, दोनों साबित करने के लिए तत्पर रहता था. एक दिन ऐसी ही एक जिम्मेदारी का काम मुझे सौंपा गया. और वह था कंपनी के इनकम टैक्स एसेसमेंट का.

लोग कहते हैं ऐसा काम समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के बगैर पूरा ही नहीं हो सकता. ऊपर से एक बात और थी. यह काम कंपनी के ऑडिटर साहब के ना कहने के बाद मुझे मिला था. डायरेक्टर साहब ने मुझे बताया कि; "आप भी कम काबिल थोड़े ही न हो. जब यह काम आडिटर साहब कर सकते हैं तो आप भी कर सकते हो क्योंकि आप भी तो इक्वली क्वालिफाइड हो."

अब मेरे जैसा समझदार व्यक्ति इस प्रशंसा को कैसे पचा सकता था? मुझे डायरेक्टर साहब से खुद को समझदार पुकारा जाना बड़ा ही प्रिय लगा. सो मैं लग गया उसे पूरा करने में. दरअसल हुआ ऐसा था कि आडिटर साहब ने कुछ डिमांड किया था और वह डिमांड डायरेक्टर साहब के गले नहीं उतरी.

यह अन्दर की बात थी. हालाँकि इस रहस्य का पता मुझे बाद में चला था. फिर भी क्या था? अपारच्यूनिटी तो थी कि मैं खुद को प्रूव कर सकूं. समझदार, स्वामिभक्त, ईमानदार, जिम्मेदार वगैरह साबित करने का मौका हाथ से क्यों जाए?

सो मैं जुट गया अपने आप को साबित करने में. इन सभी बताएं गए मानदंडों पर खुद को खरा साबित करने के लिए.

पहली हीयरिंग थी. मैं कुछ डरा, सहमा, हिचकिचाता हुआ पहुँच गया आफिसर साहब के सामने. उनके पूछने के बाद बतया कि अब यह केस मैं देखूंगा और आपके साथ कोआपरेट करूँगा. -

कोआपरेट शब्द सुनते ही आफिसर साहब की छोटी किन्तु प्रभावशाली आँखे, चश्मे के भीतर कुछ और छोटी हुई और बाद में चमकी भी. मैंने बड़ी समझदारी से आफिसर साहब के चहेरे पर आने वाली हर भावों को पढ़ा और अपनी समझदारी पर बहुते खुश हुआ.

अब आफिसर साहब कि बारी थी, जो कि सरकारी रेवेनू आफिसर भी थे. उन्होंने एकाऊंट डिटेल की एक लम्बी लिस्ट, कुछ डाक्यूमेंट लिस्ट आदि आदि बड़े ही सादगी से बनाने और लाने को कह दिया. उन्होंने यह भी कहा कि यह लिस्ट और भी लम्बी हो सकती थी लेकिन चूंकि मैंने उनसे कोआपरेट करने की बात कही इसलिए उन्होंने लिस्ट को लम्बी होने से रोक दिया.

मैं मन ही मन बुदबुदाया और सोचा साहब अच्छा होता अगर आप पूरा अकाउंट बुक्स और हर आफिस फाइल ही मांग लेते. डिटेल क्यों माँगा?

खैर आफिसर साहब के सामने मन में तो बात कर सकते हैं लेकिन जुबान पर ऐसी बातें नहीं ला सकते. वैसे भी उनके अनुसार बताये हुए डिटेल्स तो देने ही पड़ते. सो मैं उनसे एक डेट लेकर आ गया.

दूसरी हीयरिंग में गया. मैं पूरी तैयारी के साथ गया था. सोच रखा था कि आज आफिसर साहब को पता चलेगा कि मैं कितना समझदार हूँ. पर आफिस पहुँचने पर पता चला कि साहब उस दिन आएंगे हीं नहीं. अब उनसे बात करके एक और देत लेने के सिवा कोई चारा नहीं था.

मैंने सोचा चलो कोई बात नहीं. मन ही मन सोचा कि होनी को कौन टाल सकता हैं? दिन को होनी के हवाले करके पूरा साजो- सब्ज के साथ वापस आ गया. बाद में आफिसर साहब से फ़ोन पर बात कर के एक और डेट ले ली.

फ़ोन पर जिस देत को आफिसर साहब ने दिया था वो हुई तीसरी हीयरिंग. जब साहब के आफिस पहुंचा तो यह देखकर मन खुश हुआ कि उस दिन लोग कम थे. आफिसर साहब ने अपनी लिस्ट से सब डिटेल को अपने सहयक के द्वारा बारीकी से मिलवाया.

डिटेल मिलाने के बाद मेरी तरफ देखा और कहा; "साहब क्या काम करते हैं? कुछ मिलता हीं नहीं हैं. इतना बढ़िया डिटेल. कोई पॉइंट ही नहीं मिलता."

मैं फिर मन ही मन बुदबुदाया. मन ही मन अपनी पीठ ठोंक ली. मन ही मन साहब से बोला; "साहब मैं काबिल और समझदार दोनों हूँ. आप कैसे हमे पकड़ सकते हैं?"

मन ही मन खुद से बात करते हुए अपनी समझदारी और उनकी वेवकूफी पर बहुत हंसा.

लेकिन कुछ समय बाद ही मेरी हंसी जाती रही. आफिसर साहब भी कम थोड़े ही थे. आखिर वे ठहरे आफिसर. उन्होंने एक और लम्बी डिटेल लिस्ट मुझे पकड़ा दिया. साथ में दिया और एक लम्बा डेट.

अब तक मेरे ऊपर से समझदारी का नशा उतर चुका था. फिर भी मैंने मन ही मन सोचा चलो तुमको एक बार फिर से देख लेंगे. अपनी समझदारी को को प्रूव करके ही रहेंगे.

चौथी हीयरिंग पर पहुँच गए. आफिसर साहब ने मुस्कराते हुए अन्दर बुलाया. फिर पूछा कि; " साहब डिटेल बन गया?"

मैंने स्वकृति में मात्र गर्दन हिला दियां.

फिर वही प्रक्रिया. सहायक ने लिस्ट मिलाया और साहेब ने हर डिटेल की गहरी जाँच की. किन्तु रिजल्ट फिर वही था. और वही दांत निकालते हुए बोले; "साहब क्या काम करते हैं? कुछ मिलता हीं नहीं हैं."

मैंने उनकी हसीं में हसीं मिलाते हुए अनबूझे मन से कहा; " साहब सब ठीक हैं तो आपको क्या मिलेगा? कुछ हो तब तो मिलेगा."

इस बार मुझे अपने ऊपर गर्व हुआ कि आखिर मैंने अपनी समझदारी एक बार फिर सिद्ध कर ही दी. मैंने मन हीं मन अपने आप को साबासी दी और सोचा क्या डिटेल बनाया हैं. इतने रूपये की हेरा-फेरी को यह मूर्ख आफिसर समझ ही नहीं पा रहा हैं? इसको किसने रेवेनु आफिसर बना दिया हैं?

अब तक उनकी फाइल ढाई से तीन किलो की हो चुकी थी. साहब ने पूरी फाइल को तोलने वाले अंदाज में उठाया और कहा; "चलो अपने सभी कुछ दे दिया हैं. और कुछ होगा तो बाद में मांग लूँगा"

मैंने उत्तर में मात्र हाथ भर जोड़ दिया. जैसे कह रहा हूँ; "साहेब अब माफ़ कर दो. और डिटेल और डेट बर्दास्त नहीं होता."

साहब को शायद मेरे ऊपर तरस सा आ गया. और उन्होंने एक डेट देते हुए कहा की इस डेट पर मैं आर्डर लिखूंगा. बस आप अपनी डिटेल वाली फाइल लेते आना. मैंने उनकी तरफ देखा. मैं पूछना चाह रहा था; "आप के पास भी तो फाइल हैं फिर मेरी फाइल क्यों ?"

शायद वे मेरी जिज्ञासा को समझ गए. इसलिए बिना पूछे ही बता दिया की आप की फाइल देखने से बेकार पेपर की तरफ नजर नहीं दौडानी पड़ेगी. और यह आपके लिए भी अच्छा होगा.

आफिसर साहब ने मुझे यह गूढ़ रहस्य इस तरह बताया जैसे मानो कोई बनिया अपने पुत्र को व्यापार का रहस्य बताता हो.

पांचवी हीयरिंग आ पहुँची. साहब आर्डर लिखने लगे और आरंभिक चीजों को लिखने के बाद अचानक रुक गए. फिर बड़े ही सर्द शब्दों में मेरी कोआपरेट करने वाली बात पर आते हुए कहा;" क्या आप ही फाइनल करेंगे?"

मैंने कहा; "साहब आपने तो कुछ बताया ही नहीं, कुछ हो तो बताये"

मेरी बात सुनकर उन्होंने अपनी सोने वाली अंगुलियों के सहारे एक बहुते मोटी डिमांड मेरे सामने रख दी.

अब अचंभित होने की बारी मेरी थी.

मैंने बड़ी समझदारी दिखाते हुए उनसे पूछा; "साहब यह तो बताएं कि आप को मेरे अकाउंट में क्या मिल गया जिसके लिए आप का यह डिमांड कर रहे हैं? क्योंकि मुझे भी तो अपने सीनियर को बताना पड़ेगा."

उनका बड़ा ही सर्द और दार्शनिकों वाले अंदाज़ में चश्मे के ऊपर से आया - "उनसे कह दीजियेगा यह पैसा मन शांति के लिए हैं." आगे बोले; "बात समझने की कोशिश कीजिये. यदि मैं फाइल रगड़ दूं तो आपको चार साल और लगेगे हमारे ऊपर अपने को प्रूव करने में. और चार साल बाद भी आप पैसे भी दोगे और टेंसन भी लोगे. सो यह पैसा मन की शांति का हैं. "

मेरे लिए आफिसर साहब का यह रहस्य ठीक उसी तरह का था, जैसा श्री कृष्ण ने जीवन - मृत्यु का रहस्य अर्जुन को बताया होगा ........... और साथ में शांति का शंदेश दिए होंगे

मैं जीत कर भी हार चुका था. क्या करता मैंने सब बात मेरे मालिक और डायरेक्टर को बतया तो उन्होंने हमसे ऐसे बात की मानो मैं दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख हूँ और मेरे पास समझदारी नाम की कोई चीज नहीं हैं. मुझे जाने का कह कर कई फ़ोन इधर-उधर फोनिया दिए.

करीब चार घंटे के बाद फिर मुझे बुलाया और कहा;"आप आडिटर साहब (वही पहले वाले आडिटर साहब) जो कि आप के आपके सीनियर हैं के साथ चले जाएँ और फिर से एक बार निगोसीयेट करें. क्या करे देना तो पड़ेगा ही - अपने लोगो का काम ही समझदारी का नहीं हैं"

बड़ा सदमा टाइप लगा मुझे. आखिर मैं समझदार होते-होते रह गया.

Thursday, May 28, 2009

हर दिन ट्रेन के वह १०० मिनट


हर दिन ट्रेन के वह १०० मिनट. मैं कोई ट्रेन की सबारी या फिर उस से जुडी किसी घटना को तरफ अपने इस पहली लेखनी को इंगित नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह बतना चाह रहा हूँ कि यह हर दिन के वह १०० मिनट पूर्ण रूप से पूरी एक जिंदगी का निचोड़ हैं, और हर ब्यक्ति जो हर रोज अपने कर्म क्षेत्र के लिए इसका या इस तरह के किसी वाहन का प्रयोग करता हैं , रोज मात्र १०० मिनट में पूरी एक जिंदगी जी लेता हैं - चलिए अब हम इसका भावः बिस्तार किये देतें हैं-
हम हर रोज एक शिशु की भांति अनेक तरह की हिदायतों जो की अपने प्रिय जनो जो अक्सर आपकी पत्नी, माँ, पत्ति होते हैं उनसे लेकर एक स्कूल जाने बाले शिशु के भाती अनभुजे, भारी मन से अपने दफ्तर या फिर कर्म क्षेत्र के तरफ निकलते हैं जहाँ, पर अनेक हिदायतें के साथ कुछ डिमांड भी होतें हैं जिसे आपको जरूर से पूरा करना होता हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक शिशु को सब कुछ अच्छा करने की हिदायत अपने माँ या फिर अपने गार्डियन से मिलता हैं और साथ में हमें मिलता हैं कलेवे की एक पोटली ठीक एक शिशु के भाती - साथ में फिर वही हिदायत ठीक टाइम पर इसे खा लेने का अन्यथा आपकी खैर नहीं। हम शिशु की तरह घर से निकल कर बाहर निकलते हीं एक व्यस्क के अबस्था को धारण कर लेतें हैं- जो की अपनी जिम्मेदारियों के बोझ से दबा हुआ परंतु बहुते समझदार - और ट्रेन पर आते हीं हमारी मुलाकात होती हैं बहूत सारे समझदार व्यस्क से और आरंभ होती हैं जीबन की अफरा तफरी, सर्वैवल फॉर एक्जिसटेंस , हर कोई मानो जीतना चाहता हो, सिट की लड़ाई , मात्र खड्डे होने की लड़ाई , धक्का देने की लड़ाई आदि आदि - और यदि हम इस में जीत गए तो क्या कहने - लगता हैं मानो एक ज़ंग जीत गए हों - और आप मुकद्दर के बादशाह हो. हर वह ट्रेन यात्री दुसरे यात्री के साथ एक कोम्पिटीटर का हीं बर्ताब करता हैं या फिर यूं कहिये करना पड़ता हैं क्योंकि यदि आपने थोडी छुट दी तो आपका पत्ता साफ. ठीक जिंदगी के नाक - आउट प्रतियोगिता के समान, जिसमे केवल आपको जितना ही होता है.

सिट पर बैठा हुआ व्यक्ति सिट पर इस तरह से चिपका होता जैसे मानो कोई नेता अपनी कुर्सी से या फिर जैसे कोई इमानदार व्यक्ति अपनी गाढी कमाई से और वह उस पर किसी भी तरह का काम्प्रोमिस नहीं कर सकता हो, यदि आप बहुत लक् वाले हुए तो आपको भी सिट मिल सकता है और फिर आप भी वही करेंगे जिसका अभी तक आप अवलोकन मात्र कर रहे थे और यदि अपने ऐसा नहीं किया तो फिर आपका पत्ता साफ और बगल वाला समझदार व्यक्ति आपको आपकी सिट से हट्टाने मैं कोई कसर नहीं छोड़ेगा . आप इस जिदो जहद के ४० मिनट में व्यस्क जीबन के हर उतार-चदाब का अनुभव कर सकते हैं बस आपकी आँखे और दिमाग खुला होना चाहिए. ऐसा नहीं हैं की आप की केवल आप विषम परिस्थितयों का हीं सामना करेंगे, आप को वयस्क जीबन का हर रूप का दर्शन करने का पूरा मौका मिलेगा बस आप केवल बताये गए नियम अर्थात आँख और दिमाग खुला रखे और उसका आनंद लें. इसके बाद आता हैं आपका अपना कर्म क्षेत्र - जहाँ आपको ८ से ९ घंटे देना परता हैं और जब आप पुनः उसी ट्रेन पर आते है तो आपकी अवस्था डूबते हुएं सूरज के समान होता हैं और आप विर्द्धावस्था मैं परबेस कर चुके होते हैं. अब न तो आप के पास व्यस्क अवस्था बाली जदों - जहद के करने कि शक्ति होतीं हैं न आप उस तरफ जाते हैं बरन एक वृद्ध के भातीं लटके से किसी कोने में जाकर सिकुर जातें हैं और एक्स्पेक्ट करते हैं सायद कोई व्यस्क आपकी कुछ सहायता कर दें और ठीक किसी तरह ४० मिनट गुजार भर लेतें हैं. और उसके बाद आरंभ होता हैं अंतिम चरण जहाँ आप सभी की हिदायत और डिमांड को पूरा करने के बाद आते हैं और अपने को एक जिमेम्बार सफल और बुजुर्ग व्यक्ति साबित करते हैं और सच मानिये आप केवल इसी अवस्था में किसी को अपने होने का अहसास दिला पाते हैं क्योंकि आप इस अवस्था में देने की स्थिति में होते हैं

Wednesday, May 20, 2009

कभी तुम..............

कभी तुम..............
अपने उलझे हुए व्यक्तित्व को, सुलझा के तो देखो।
रोते हुए बच्चे को , हँसा के तो देखो॥

राजनीति के छित्त्न्कसी से हटकर, देश सेवा में आ के तो देखो।
लम्बे सफ़र में किसी बुजुर्ग के लिए, सिट छोड़कर के तो देखो॥

अपने जिगरी दुश्मन को, जिगरी दोस्त बना के तो देखो।
पड़ोस के ख़ुशी में, खुश हो के तो देखो॥

प्रकृति के नयाब चीजों को, सजा के तो देखो।
छोटे- छोटे बच्चों के साथ, खेलकर तो देखो॥

अपने सेवक के कंधे पर, हाँथ रखकर तो देखो।
गिरते हुयें व्यक्ति को, सम्भाल के तो देखो॥