Wednesday, May 20, 2009

कभी तुम..............

कभी तुम..............
अपने उलझे हुए व्यक्तित्व को, सुलझा के तो देखो।
रोते हुए बच्चे को , हँसा के तो देखो॥

राजनीति के छित्त्न्कसी से हटकर, देश सेवा में आ के तो देखो।
लम्बे सफ़र में किसी बुजुर्ग के लिए, सिट छोड़कर के तो देखो॥

अपने जिगरी दुश्मन को, जिगरी दोस्त बना के तो देखो।
पड़ोस के ख़ुशी में, खुश हो के तो देखो॥

प्रकृति के नयाब चीजों को, सजा के तो देखो।
छोटे- छोटे बच्चों के साथ, खेलकर तो देखो॥

अपने सेवक के कंधे पर, हाँथ रखकर तो देखो।
गिरते हुयें व्यक्ति को, सम्भाल के तो देखो॥

6 comments:

  1. वाह संजय भाई...वाह...एक बात तो साफ़ हो गयी की आप में लिखने की क्षमता तो है...अब बात रह गयी ले सुर ताल की तो उसे जानने समझने के लिए बहुत वक्त पढ़ा है...धीरे धीरे वो भी आ जायेगा...आप लिखना जारी रखिये क्यूँ की जितना लिखोगे उतना लेखन में निखार आएगा...कभी कभी आप अपने विषय याने डेबिट क्रेडिट पर भी लेख लिख सकते हैं...जरूरी नहीं है की हमेशा कविता ही लिखें...कुछ भी लिखें लेकिन लिखना बंद न करें...
    आपको साहित्य की राह पर चलते देखना अपने आप में बहुत ख़ुशी का विषय है...चलते रहो..
    जोदी तोरे डाक सुने क्यु ना आशे...तो एकला चालो रे...

    नीरज

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  2. bahut achhi rachna k liye aapko badhai neerajji,
    wish you all the best

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  3. mai Neeraj ji ki baat se sahmat hoon.Aapke liye meri hardik shubhkamnayen.
    Dr.Bhoopendra

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  4. नीरज भाई ने पूरी बात कह दी.

    भाव बहुत उम्दा हैं किन्तु!!

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  5. vaah badhiya blog hai.. :)

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  6. bahut sundar sir ji ;

    bahut der se aapki dusari post bhi padh raha hoon .. kamaal likhte hai ..

    is kavita ko padhkar dil ek alag se ahsaas me chala gaya .. behatreen lekhan . yun hi likhte rahe ...

    badhai ...

    dhanywad.
    vijay

    pls read my new poem :
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html

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