Saturday, June 6, 2009

मेरे बच्चे मुझे बुड्ढा होने नहीं देते

मैं हमेशा टीवी मैक्स- न्यू-लाइफ-इंश्योरेंस के उस विज्ञापन को देखकर खुश हो जाता हूँ, जहाँ पर एक व्यक्ति अपनी जिम्मेवारिओं को पूरा कर स्वछंद जीवन यापन कर रहा होता है, और उसे अब किसी भी प्रकार की कोई दुश्चिंता नहीं है, वह अपना कर्म-योगी जीवन पूरी ईमानदारी से निभा कर अब कुछ भी करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है .........

ठीक इसके विपरीत मैं अपने घोषाल साहब को देखता हूँ वह भी करीब प्रचार वाले व्यक्ति के हमउम्र ही होंगे या फिर उनकी उम्र उससे कुछ ज्यादा ही होंगी.....

चलिए पहले मैं अपने घोषाल साहब के वारे में आपको बता दूं. घोषाल साहब से मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं हैं, वह मुझे अक्सर आफिस आते वक्त रस्ते में मिल जाते हैं, पेशे से वह वकील हैं, उनकी उम्र ७०-७५ के आस-पास होगी, आँखों में भारी पाबर का चस्मा हैं, चलते वक्त पैरो के कम्पन को आप दूर से देख कर अनुभव कर सकते हैं. एक फटी हुई फाइल को लेकर हमेशा सुबह के १०.४५ के आस-पास कोर्ट के तरफ जाते हुएं आप भी देख सकते हैं.

उनकी काली पोशाक जो अब जर-जर हो गयी है, इस बात को शंकेत करता हैं की उनके पास अब दूसरी कोई काली पोशाक नहीं हैं. मैं उनको अक्सर बस सहानुभूति वाले नजर से देखकर आगे चला जाता था, कभी परिचय न होने के कारण उनसे बात नहीं कर सका. किन्तु उनका बेवश उम्रदराज चेहरा मुझे हमेसा कचोटता था. सौभाग्यबस एक दिन मुझे कोर्ट में जाना था, मैंने देखा हमारे घोषाल साहब अलग- थलग से एक बेंच पर बैठे हुएं है, सो मैं उनके पास जाकर बैठ गया, और अपना आरंभिक परिचय देने के बाद, उनसे उनके बारे में पूछा.. ...

उनके अनुसार उनके ३ लड़के और २ लड़कियां हैं, पत्नी का निधन दो साल पहले हुआ है. एक लड़की की शादी हो चुकी हैं और एक घर पर है, दोनों लड़को का अपना संसार है और वेल सेटेल है, दोनों लड़को के दो-दो बच्चे हैं. भरा- पूरा खुशहाल परिवार है. मेरी जिज्ञासा बढती गयी, और मैंने पूछ लिया - सर, जब सब सेटल हैं तो आप इतना कष्ट क्यों उठा रहे हो?

और मुझे जितना कुछ उनके वारे में दिखता था सब् वक दिया. एकवारगी तो मेरे इस सवाल से वो सकपका से गए- परुन्तु दुसरे ही पल उनकी आँखे छलछला गयी - और उन्होंने मुझे बताया- मेरे दोनों लड़के केवल अपने संसार को लेकर व्यस्त हैं और घर की कोई भी जिम्मेवारी से उनका कोई नाता नहीं नहीं है, यहाँ तक की घर के रासन- पानी में भी एक फिक्सड रुपे दे देते हैं, वाकी सब उनको ही देखना पड़ता है. लड़की की शादी करनी हैं उसके लिए भी पैसे चाहिए. एक लड़के की नौकरी के लिए भी उन्होंने उधार लिया हैं उसे चुकाना है. मेरी मजबूरी है, क्या करुँ छोड़ भी तो नहीं सकता, बस अब तो केवल ठाकुर ऊपर बुलाये तब ही शांति होगा .........आदि आदि......

उनकी यह सब बातें सुनकर मानो मेरे पैर के निचे से धरती सरक सी गयी थी. और मैं किसी भी प्रकार से अब कुछ पूछने की स्थिती में नहीं था. मेरे समझ में यह नहीं आ रहा था की उन्हें मैं कर्मठ, कर्मयोगी कहूं या फिर लाचार, आभागा, अपने बच्चों द्वारों सताया हुआ एक बाप.

6 comments:

  1. संजय जी आज सुबह सुबह जीवन की कड़वी सच्चाई को निर्ममता से उधेड़ती हुई आप की ये रचना अन्दर तक छू गयी...क्या कहूँ...???
    नीरज

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  2. सच तो यह है कि किसी भी सामान्य इंसान के लिए कोई एक या दो विशेषण काफी नहीं है. घोषाल बाबू कर्मठ, कर्मयोगी भी हैं और बच्चों के द्बारा सताए गए इंसान भी. इंसान का जीवन न जाने कितने रंगों से भरा है. सब कुछ अगर सीधा और सपाट होता तो फिर उसे जीवन नहीं कहते...घोषाल बाबू के जीवन में डेबिट और क्रेडिट की भरमार है.

    बढ़िया पोस्ट है.

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  3. .... ख्वाहिशे बड़ी है इन दिनों.......जिम्मेदारिया ....कर्त्तव्य ..गुजरे जमाने की बात हुई...

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  4. सच्ची कहानी घर घर की बयां करती हुई रचना दिल के भीतर एक नश्तर के भांति उतर गयी.
    पढ़कर गुस्सा भी आता है और दुःख भी होता है.
    क्या कहें?

    कृपया इसे भी पढें.
    http://bal-kishan.blogspot.com/2007/11/blog-post_03.html

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  5. क्या बन्धु, मैं सोचता था यहां इस ब्लॉग पर नाम अनुसार गूढ़ अकाउण्टेंसी की बात होगी। पर यह तो गूढ़तर मानव सम्बन्धों की बात हो गई।

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  6. बहुत खूब.....!! आपकी रचना गहरे तक असर कर गयी ...!!

    बेहतरीन रचना ....!!

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