आदमी की शक्सियत से है, ये बंदगी,
सादे लिबास में बस लिपटी, ये ज़िन्दगी,
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
रहे गुजर ज़िन्दगी की होती है, इक सच्चाई,
रह जाती आदर्शों की बस इसमें, इक परछाई.
टूटते है सारे वादें सच्चाई वाला प्रण.
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
हरेक जुर्मवार की अपनी है, इक रवानी,
सभी कुकृत्यों में छिपी उनकी, इक कहानी.
समझा लेते है "मैं" को समझ के इक बुरा स्वप्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
सोचता हूँ आदर्शो का कल होगा नया, इक सवेरा,
वादों, नियमो, सच्चाई का बस, होगा इक बसेरा.
"कल" का "कल" न होने से हो जाता हूँ खिन्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
------- "नीरज भैया" की आज्ञानुसार इक कोशिश
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kya likh diye hai bhaiya..........mazaa aa gaya
ReplyDeleteआदमी की शक्सियत से है, ये बंदगी,
ReplyDeleteसादे लिबास में बस लिपटी, ये ज़िन्दगी,
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
kya baat hai bhaiya sahi main aapne jo first do line likhe hai wah sahi main har ek aadmi ki jindgi se judi hai kyun ki har ek aadmi is duniya main aata hai aur sade libaas odhkar chalajata hai
बहुत बढ़िया लिखा है भाई. शायद अच्छे आदमी को रगेदना आसान है. ऐसे अच्छे आदमी कहलाने से मन तो डरेगा ही. आखिर मन ही सबकुछ है. नीरज भैया का आदेश मानकर लिखी गई है रचना तो बढ़िया होगी ही.
ReplyDelete"कल" का "कल" न होने से हो जाता हूँ खिन्न,
ReplyDeleteअच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
HINDI TO UTNA ACHA MUJE PARNA NEHI ATA LEKIN JITNA PADHA BAHUT ACHA LAGA SIR.LAST TWO LINES R AWESOME SIR................
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
ReplyDeleteअच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन
सही कहा, अच्छे आदमी दिखोगे तो हर कोई exploit करने लगेगा
संजय जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है.
टूटते है सारे वादें सच्चाई वाला प्रण.
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
बहुत खूब
आदमी की शक्सियत से है, ये बंदगी,
ReplyDeleteसादे लिबास में बस लिपटी, ये ज़िन्दगी,
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
bahut hi sunadar abhiwyakti ......ek khubsoorat rachana bhi .......bahut hi sundar
सोचता हूँ आदर्शो का कल होगा नया, इक सवेरा,
ReplyDeleteवादों, नियमो, सच्चाई का बस, होगा इक बसेरा.
"कल" का "कल" न होने से हो जाता हूँ खिन्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
Waah ! Waah ! Waah ! Kya baat kahi aapne...ekdam sach....
bahut hi sundar rachna ke liye badhai swikaren...
संजय भाई...आपने मेरे कहने पर कविता में जो हाथ आजमाया है वो कबीले तारीफ है लेकिन मैंने इतनी जल्दी आपको हाथ आजमाने को थोडी न कहा था...
ReplyDeleteखैर... आपने बहुत अच्छा प्रयास किया है जो सिर्फ एक अच्छा इंसान ही कर सकता है...आप ने सच कहा है..अच्छा बनने में बहुत नुक्सान है भाई इसलिए डरना स्वाभाविक है...आज के युग में बुरे के आगे सबके शीश झुकते हैं और सच्चे बेबात पिटते हैं...
आप कवि बनने की प्रक्रिया में धीरे धीरे आगे बढिए क्यूँ की कविता का रास्ता थोडा ऊबड़ खाबड़ होता है...
शुभ कामनाओं के साथ
नीरज
रहे गुजर ज़िन्दगी की होती है, इक सच्चाई,
ReplyDeleteरह जाती आदर्शों की बस इसमें, इक परछाई.
टूटते है सारे वादें सच्चाई वाला प्रण.
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
waah bahut khub kaha hai.
बहुत सुंदर लिखा है !!
ReplyDeleteसोचता हूँ आदर्शो का कल होगा नया, इक सवेरा,
ReplyDeleteवादों, नियमो, सच्चाई का बस, होगा इक बसेरा.
"कल" का "कल" न होने से हो जाता हूँ खिन्न,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
बहुत खूब...बहुत सुंदर लिखा है
बहुत सुंदर बहुत खूब...
ReplyDeleteसमझा लेते है "मैं" को समझ के इक बुरा स्वप्न,
ReplyDeleteअच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
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यह कई बार मन में आता है कि जानबूझ कर कुछ कुटिलता सीखी जाये - पर नैसर्गिक व्यक्तित्व आता है आड़े!
अच्छी कविता है जी।
aapko accha laga,shukria,aapka man bhi accha hai.
ReplyDeleteथकने नहीं देता मुझे ये ज़रूरत का पहाड.
ReplyDeleteमेरे बच्चे मुझे बूढा नहीं होने देते.
आपके ब्लाग पर आधा शेर पढ्कर पहला मिसरा याद हो आया मेरा पसन्दीदा शेर है.
आदमी की शक्सियत से है, ये बंदगी,
ReplyDeleteसादे लिबास में बस लिपटी, ये ज़िन्दगी,
अनजाने जुर्म से कभी सुलगता है तन,
अच्छे आदमी कहलाने से डरता है मन.....
बहुत खूब....!!
Behterin....
ReplyDeleteवाह भाई
ReplyDeleteडेबिट-क्रेडिट में जीवन-चिट्ठा पढ़ने को मिला!